किताबों से बचकर गुजरा नही जा सकता, ऐसा मैं मानता हूँ जैसे किसी बागीचे से गुजरते हुये हम फूलों की खुश्बू से बच नही सकते उसी तरह किताबें से नही बच सकते जीवन का निचोड़ होती हैं......... किताबें। रोजमर्रा की जिन्दगी में एक बार संतोष नही मिले, यश नही मिले, लेकिन किताबों से सामना हो ही जाता है।

कितनी ही ऐसी किताबें हैं जो अपने स्थानीय स्तर पर या कभी यूँ ही सिमटे हुये सर्क्यूलशन की वज़ह से वहाँ तक नही पहुँच पायी जहाँ उन्हें होना था वो आज भी अंजान हैं । हर एक किताब जीवन जीने के तरीके में बदलाव लाती है या जीवन के और करीब ले जाती है। इस ब्लॉग में ऐसी ही किताबों का जिक्र है मैंने जिन्हें पढ़ा, गुना या जिनसे जीवन जीना सीखा है, या मुझे पढ़ने को मिली और वो आपकी भी मदद कर सकेंगी............. इसी भावना से उनका जिक्र होना चाहिये बस यही प्रयास है...........।























रविवार, 7 अक्तूबर 2012

लखनऊ : जैसा देखा मैनें.....भाग - 3


भाग - 3

रात 09:बज रहे हैं, गौतम त्रिवेदी (मेरे सहकर्मी) का ईमेल अभी-अभी मिला है, मेरा टिकिट है बैंगलुरू-लखनऊ-इन्दौर के, सीधे होटल के रिसेप्शन पर भागता हूँ और अपनी टिकिट के प्रिंटस लेकर कैसे तो भी रात्रि भोजन को पूरा करते हुए सोने चला जाता हूँ लेकिन जल्दी करते हुए भी 11:00 बज गए हैं, पापा से बात हो चुकी है, नीता (मेरी सबकुछ) से बात हो चुकी है वो अलबत्ता इस बात के लिए नाराज है कि अब मैं उसे अपने साथ किसी ऐसे आयोजन / कार्यक्रम में भी नही ले जा पा रहा हूँ। सुबह होटल का बिल सैटल करना है, सुबह 05:30 एयरपोर्ट पहुँचना है तो होट्ल से करीब 04:15 पर निकलना होगा बास ऐसी उल्टी गिनती ही चलती रही आँखों में कब नींद आई कुछ पता ही नही चला। रात अभी खुद नींद में मदहोश है, घड़ी में रात के ढाई बज रहे हैं मैं भी अपनी अलसाई आँखों से नींद भगाने का प्रयास कर निकल पड़ने की तैयारी करने में जुट गया हूँ। फिर वही रूटीन, बिल प्लीज, चेकआऊट, पैमेंट, दोबारा सेवा का मौका दीजियेगा वगैरह वगैरह....टॅक्सी आ चुकी है, बस निकल पड़ा थैंक्य़ू बैंगलुरू.......

26-अगस्त-2012 : एयरपोर्ट के बारे में सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि पहुँच चुका हूँ, इंडिगो की उड़ान है सुबह 06:35 पर लखनऊ से उड़ान भरेगी और 09:40 पर लखनऊ पहुँचेगी (शेष सभी कुछ जो होता है इस प्रोसेस में वो या तो गोपनीय होता है और सरकारी आदेश के अनुसार प्रतिबंधित होता है, जैसे एयरपोर्ट पर कोई तस्वीर खींचना, हवाई तस्वीर खींचना, धूम्रपान करना, मोबाइल से बात करना, इसलिए उस बारे में न तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ और न आप सुनें, भई सरकारी आदेश जो है......)। सुबह के 09:45 हो रही है मैं लखनऊ एयरपोर्ट की लाऊंज में आ चुका हूँ सीधे ही फोन लगाता हूँ रविन्द्र प्रभात जी को और इत्तला देता हूँ कि सर जी आपके शहर में हमारे कदम पड़ चुके हैं अब अगर शहर में कुछ हो तो सरकारी कायदे में हमारा नाम भी लिया जा सकता है लेकिन इस समय के पहले की हमारी कोई जिम्मेदारी नही। अमौसी एयरपोर्ट से प्रीपेड टॅक्सी पकड़ी है हज़रतगंज के लिए और फिर रास्ते में ही रविन्द्र जी का फोन आ जाता है कि होटल जैमिनी इंटरनेशनल देख सकते हैं ठहरने के लिए। होटल तक पहुँचने के बाद यह समझ आ गया कि गोमती का पानी सफेद क्यों नही रह गया चलो भाई यहाँ तो अपनी दाल नही गलेगी। इस बीच महफूज अली को फोन लगाया था जनाब कहीं बाहर गए हुए थे शायद अम्मी ने उठाया होगा और कहा कि जब महफूज आ जाएगें तो बता देगें(फिर तो लखनऊ छोड़ने के बाद भी इंतजार ही किया) और विनय प्रजापति को तो यूँ ही ढूंढ पाना मुश्किल फिर मै कैसे खोज लेता फोन नही लगा? फिर क्या दोबारा रविन्द्र जी को फुनियाया कि भाई साहब अब बताएँ कहाँ जाए और उन्होंने तुरंत ही कहा आप परेशान न हों विश्वविद्यालय के अतिथिगृह चले जाएँ और वहाँ अटेण्डेंट से श्री जाकिर अली "रजनीश" की बात करवा दें कुछ हो जाएगा हालांकि हमारी बुकिंग आगामी कल की है ( इस साफगोई ने दिल जीत लिया कि आदमी शहर में होते हुए भी गँवई भोलापन लिए हुए है)।

आखिरकार, लखनऊ विश्वविद्यालय का अतिथि निवास (गेस्ट हाऊस) पहुँच ही गया और कोई आधे घण्टे के इंतजार के बाद मुझे वहाँ एक कमरा मिल ही गया। कमरा बहुत ही अच्छा है, साफ, सजा हुआ, ए.सी., टी.व्ही., फ्रिज आदि आधुनिक सुविधाओं से लैस। अबतक लखनऊ की उमस भरी गर्मी से बैचेन हो गया था, तुरंत स्नान किया और फिर यहँ तक आते हुए रास्ते में पप्पू भैया(हमारे टॅक्सी ड्राईवर) ने एक पुल से गुजरते हुए बताया था कि यह पुल हनुमान सेतु कहलाता है यहाँ हनुमान जी का मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है लखनऊ में मंगल और शनिचर को बहुत भीड़ रहती है जाम लगा रहता है सड़कों पर। कुछ भी किसी भी शहर को जानने के लिए कोई गाईड नही कोई मैप नही बस कोई अच्छा और बातूनी ड्राईवर चाहिए फिर तो पूरा शहर परोस के रख देगा। मैं भी मंदिर हो आया कुछ देर वहाँ रुका भी बहुत श्रवणीय भजन संगीत के साथ, मन चाह रहा था कि दोपहर वहीं बिता दूँ। बहरहाल वहाँ से लौटने लगा तो पाँव परिवर्तन चौक तरफ उठ गए वहाँ घूमता रहा और फिर वहीं एक मिठाई की दुकान जहाँ मावा औटाया जा रहा था, ताजी और गर्म मिठाई खायी (ऐसा स्वाद एक मुद्दत के बाद मिला था, याद पड़ता है जब चंदिकन(एक देवी का मंदिर बक्सर के पास) गया था तब वहाँ ऐसी ही मावे की गर्म कुसलियाँ खायीं थी), इस दुकान पर हाथ से घुमा कर जमायी जा रही कुल्फियाँ भी बनते देखना बड़ा आश्चर्यमिश्रित सुखद लगा कि टेक्नालॉजी के बढ़ते हुए कदमों के बावजूद भी हम कैसे अपनी पुरातन तकनीकों को बचाए हुए हैं।

अब तक मैं पुनः गेस्ट हाउस आ पहुँचा हूँ और श्री रविन्द्र प्रभात जी भी, यहीं उनसे पहली दफा रूबरू मुलाकात हो रही है, सहज, सरल और मृदुल रविन्द्र जी से मिलना लखनऊ आने की सबसे बदई सौगात रही। फिर रविन्द्र जी मुझे नीचे खींच ले आए रूम न> 103 में जहाँ श्री अविनाश वाचस्पति, श्री पवन चंदन और डॉ. हरीश अरोड़ा अपना डेरा जमाए हुए थे। सब दिल खोल के मिले ऐसा लगा ही नही कि हम पहली बार मिल रहे हों। हालांकि मैं पहले भी श्री अविनाश जी मिल चुका हूँ दिल्ली में अपनी पुस्तक " शब्दों की तलाश में " के विमोचन पर लेकिन लखनऊ में उनसे मिलना बिल्कुल दिल से हुआ(शायद दिल्ली में कोई भी किसी दिल नही मिला सकता)। अब यहीं पर श्री रणधीर सिँह ’सुमन’ लोकसंघर्ष ब्लॉगवाले आ चुके हैं और श्री मनोज पाण्डेय भी(श्री मनोज से मेरी मुलाकात गेस्ट हाऊस की लॉबी में हो चुकी थी और बातें भी तब तक हम अंजान थे एक दूसरे से, ऐसा बहुत बार होता है कि हम किसी शख्स से घंटों बातें कर लेते हैं और फिर भी उसका नाम पता तक नही पूछते, हमारी सभ्यता का विकास इस कदर हो चुका है)।

शाम ढल चुकी है, अवध जिसकी शामों के बारे मेरा कुछ भी कहना कोताही ही होगा इसलिए कुछ नही कहूँगा लेकिन मेरी उस शाम में श्री संजय जायसवाल "संजय" व्यंग्यकार श्री अविनाश से मिलने आए थे लेकिन जब बैठे तो दो-ढाई घंटे बीत गए। अब तक खाने का समय हो गया था हम सब नीचे डाईनिंग रूम में आ चुके थे, गेस्ट हाऊस की मेस का बिल्कुल घरेलु खाना (करीब एक हफ्ते बाद नसीब हुआ था)। खाना खत्म होते होते श्री शैलेष भरतवासी (हिन्द-युग्म) अपने साथ श्री दिव्यप्रकाश दुबे के ले आए थे, दिव्य करीब दो सालों पहले इन्दौर में पदस्थ थे और मेरी एक कविता "वो काली सी लड़की" के मुरीद, हमारी मुलाकात इन्दौर में तो नही लखनऊ में ही तय थी तो यहीं मिले। सब अबतक मेरे कमरे रूम न. 12 में आ चुके थे। दिव्य के साथ दिल खोल के बतियाया और पापा की एक कहानी "एक दूसरी जानकी का जन्म" पर के डाक्यूमेन्ट्री बनाने के संबंध में लम्बी चर्चा हुई और रात ग्यारह बजे तक मुझ पर वही जिन्न सवार होने लगा जिसे नींद भी कहते हैं भाई...........नींद के इंतजार के साथ सुबह के ख्याल दिल में तैर रहे थे....कौन कौन आ रहा है???

                                          पढ़ते रहियेगा अभी सफर बाकी है........

3 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

यात्रा,पड़ाव,उत्कंठा...इसे कहते हैं उत्साह

मनोज पाण्डेय ने कहा…

आपसे मिलना वाकई बहुत सुखद रहा मेरे लिए ....आभार रवीन्द्र जी का जिन्होंने यह सुयोग दिया .

रविकर ने कहा…

शब्दश: पढ़ा -
अच्छा लगा-
लखनऊ अच्छा लगा -
आभार ||