किताबों से बचकर गुजरा नही जा सकता, ऐसा मैं मानता हूँ जैसे किसी बागीचे से गुजरते हुये हम फूलों की खुश्बू से बच नही सकते उसी तरह किताबें से नही बच सकते जीवन का निचोड़ होती हैं......... किताबें। रोजमर्रा की जिन्दगी में एक बार संतोष नही मिले, यश नही मिले, लेकिन किताबों से सामना हो ही जाता है।

कितनी ही ऐसी किताबें हैं जो अपने स्थानीय स्तर पर या कभी यूँ ही सिमटे हुये सर्क्यूलशन की वज़ह से वहाँ तक नही पहुँच पायी जहाँ उन्हें होना था वो आज भी अंजान हैं । हर एक किताब जीवन जीने के तरीके में बदलाव लाती है या जीवन के और करीब ले जाती है। इस ब्लॉग में ऐसी ही किताबों का जिक्र है मैंने जिन्हें पढ़ा, गुना या जिनसे जीवन जीना सीखा है, या मुझे पढ़ने को मिली और वो आपकी भी मदद कर सकेंगी............. इसी भावना से उनका जिक्र होना चाहिये बस यही प्रयास है...........।























गुरुवार, 20 सितंबर 2012

लखनऊ : जैसा देखा मैनें.....(भाग– 2)


आपन चैति होत नही, हरि चैति तत्काल, बलि चाहा बैकुंठ को भेज दिया पाताल। को मैं एक महावाक्य की तरह ही लेता रहा हूँ, यह कहा जाता है कि हमारे संस्कारों की बेल को केवल स्त्रियाँ पोष रही है सदियों से नही तो वो कभी के विलुप्त हो गए होते जैसे इंसानियत, इमानदारी और सद्चरित्र कालांतर में विलुप्तप्राय होते गए और इन्सानों के मशीनी संस्करण के रूप में भीड़ बढ़ती गई। मेरी माँ, का बहुत गहरा विश्वास रहा है ईश्वर में और हम सभी भाई-बहनों में यह घूंटी के साथ पिया हुआ दौड़ रहा रहा है आज के दौर में इतना बदलाव जरूर आया है कि हम अब भी खूंटियाँ तलाशते हैं और हमारी पीढियाँ अपने वार्डरौब में हैंगर(भले खूंटियों की जरूरत उन्हें भी हो संस्कारों के टांगने के लिए, और खूंटियाँ शायद इसिलिए बची रह गई हों?) बहरहाल, लखनऊ जाने के प्रश्न को ईश्वर के हवाले कर मैं तो व्यस्त हो गया बैंगलुरू में।


23-अगस्त-2012, बैंगलुरू एयरपोर्ट से हॉटल लेमन-ट्री, अल्सूर झील(एम.जी.रोड़ क्रास) पहुँचने तक दोपहर तीन बज आयी थी, फिर चेक-इन की औपचारिकताएँ निबाहते हुए अपने कमरे में दाखिल होने के साथ कुछ देर आराम करने की चाह को रोक नही पाया, ऐसा हो जाता है उबाऊ सफर के बाद मुझे व्यक्तिगत तौर पर हमारी रेलगाड़ियों से यात्रा करना सुहाता है, समय या तो कभी राजनैतिक छी-छा लेदर करते गुजर जाता है तो कभी पड़ोसी के अख़बार में झाँकते हुए(यह ताक-झाँक मुझे कभी यात्राजन्य प्रतीत होती है) और भी अन्य कई साधन सुलभ होते हैं दिल बहलाने के लिए जिन खोजा तिन पाईयाँ.....की तर्ज पर। हवाई सफर में ऐसी कोई गुंजाईश नही होती यहाँ आदमी बस खुद में ही सिकुड़ा जाता है उसके फैलने की जगह भी तो नही होती है, अर्थ को शास्त्र के साथ समझ लेने से आदमी कभी-कभी अनर्थ कर बैठता है वैसा ही कुछ लगता है कि जहाँ हैड स्पेस, बूट स्पेस, आर्म स्पेस सभी कुछ स्पेसीफाई होता है और आदमी के लिए कुछ जगह नही बचती।

24-अगस्त-2012, सुबह से ही दिन सवार है सातवीं माले पर सूरज भी निकलते ही मेरे कमरे में आ धमका था गोया उसे भी मेरे साथ वर्चुअल बाहा में एक निर्णायक की भूमिका निभानी हो? बहरहाल मैं लेट हो चुका हूँ बाकी सभी अपने हिस्से का कॉम्पलीमेंट्री बेकफास्ट कर चुके हैं और मेरा अभी पाठ चल रहा है खैर किसी तरह मैं गाड़ी पकड़ लेता हूँ अपने गंतव्य बैंगलुरू इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के लिए। सुबह से कब शाम और कब रात ढल गयी कुछ पता ही नही चला। रात 09:00 बज रहे हैं लौट रहा हूँ होटल सुबह के लिए वेल्लोर निकलना,टॅक्सी ठहरानी है, बड़ी अजॊब सी स्थिती है कि जब संध्या की लाली ऊषाकाल का भ्रम रचती है और नींद आँखों का पता पूछकर उल्टे पाँव लौट जाती है।

25-अगस्त-2012 सुबह बिल्कुल जल्दी ही रोस्टोरेन्ट में पहुँच गया था ब्रेकफॉस्ट में विष्णुमोहनी( अब हम तो ठहरे पूरी/पूड़ी वाले अब आप इसे सोहारी कहें, पूड़ी कहें या पूरी क्या फर्क पड़ता है) और भाजी थी और पूरे दिन का सफर....बस फटाफट निपटाया और चल पड़े। हौसूर को पार करते ही प्राकृतिक नजारों से भरी हुई पहाड़ियाँ के बीच गुजरना(मैंने अपने फेसबुक पर भी चित्रमयी स्टेट्स अपडेट किया था) बड़ा ही सुखद लगा हरबार यही लगता रहा कि बस कि यहीं कहीं रह जाऊं। वेल्लोर पहुँचने के साथ एक झलक देखने को मिला कि किसी राजनैतिक पार्टी ने चौराहे पर मजमा लगाया हुआ है और कुछ जूनियर आर्टिस्ट बड़े ही भद्दे तरीके से मेकअप किए हुए अपने सुप्रीमो के डायलग्स बोल रहे हैं या उनकी फिल्मों के गीतों पर ठुमकए लगा रहे हैं (मैं अचंभित था, इस देश में अभी भी ऐसा सब कुछ संभव है लोगों का हुजूम केवल एक भीड़ है और उनको भूख भी लगती है) और लोगों की भीड़ यही संकेत दे रही है कि उन्हें बड़ा अच्छा लग रहा है। वेल्लोर इंस्टीट्यूट के खूबसूरत और करीने से व्यवस्थित कैम्पस में पहुँचने पर वो आनंद की अनुभूति हुई और मन श्रृद्धा से भर गया इसको बनाने वालों और इसे मैंनेटेन करने वालों के प्रति(मैंने अपने फेसबुक में यह स्टेट्स अपडेट भी दिया था)। अब तक ब्लैकबेरी किसी बैरी की तरह मेरी इन्दौर वापसी की एयर टिकिट ला चुका था। बड़े खिन्न मन से लौट रहा हुँ बैंगलुरू के लिए और इस उदासी की वज़ह से मैं अब उन सारे सुन्दर / सुखद नज़ारों से नज़रे नही मिला रहा हूँ।


अचानक एक ख्याल आता है और अपने बॉस को एक ईमेल भेज देता हूँ कि क्या अपनी इन्दौर की वापसी को लखनऊ के बारास्ता कर सकता हूँ? और साथ में तस्लीम-परिकल्पना का ईमेल निंमत्रण अटैच कर देता हूँ, कहा जाता है न...तिरिया चरित्रम, पुरूष्स्य भाग्यम दैव ना जानामि कुतौ मनुष्यः, मन में अनगिनत विचार उमड़ रहे थे और मुझे ...........हरि चैति तत्काल में भरोसा रह रहके याद आ रहा था और ब्लैकबेरी की खामोशी कहीं मेरे विश्वास को कमजोर कर रही थी। मेरे हौसूर पहुँचते पहुँचते शाम के 07:00 बज रहे थे, अचानक एक ईमेल आने का संकेत मिला मैंने धड़कते दिल से खोला तो सहसा चैंक पड़ा बॉस ने ईमेल मे ओ.के. लिखा था। फिर तुरंत एयर टिकिट की जुगाड़ में लग गया ताकि होटल पहुँचने तक लखनऊ निकलने का इंतजाम कर सकूँ। गौतम(मेरे सहकर्मी) टिकिट के लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं मेरा वार्तालाप जारी है और मैंने भी एक साथ कै च्वाइस दे दी हैं कि २६ अगस्त की सुबह से लगाकर रात तक क्भी भी लखनऊ पहुँचा दो। इस बीच रविन्द्र प्रभात जी से बात कर चुका हूँ, रश्मिप्रभा जी से तबियत के हाल ले चुका हूँ ऐसा लग रहा है कि बैंगलुरू में होते हुए भी मन लखनऊ पहुँच चुका है.......लेकिन अभी टिकिट नही आई है.........

पढ़ते रहियेगा अभी सफर बाकी है........

1 टिप्पणी:

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

यह संस्मरण तो पुस्तक का रूप लेता जा रहा है, बधाइयाँ !