किताबों से बचकर गुजरा नही जा सकता, ऐसा मैं मानता हूँ जैसे किसी बागीचे से गुजरते हुये हम फूलों की खुश्बू से बच नही सकते उसी तरह किताबें से नही बच सकते जीवन का निचोड़ होती हैं......... किताबें। रोजमर्रा की जिन्दगी में एक बार संतोष नही मिले, यश नही मिले, लेकिन किताबों से सामना हो ही जाता है।

कितनी ही ऐसी किताबें हैं जो अपने स्थानीय स्तर पर या कभी यूँ ही सिमटे हुये सर्क्यूलशन की वज़ह से वहाँ तक नही पहुँच पायी जहाँ उन्हें होना था वो आज भी अंजान हैं । हर एक किताब जीवन जीने के तरीके में बदलाव लाती है या जीवन के और करीब ले जाती है। इस ब्लॉग में ऐसी ही किताबों का जिक्र है मैंने जिन्हें पढ़ा, गुना या जिनसे जीवन जीना सीखा है, या मुझे पढ़ने को मिली और वो आपकी भी मदद कर सकेंगी............. इसी भावना से उनका जिक्र होना चाहिये बस यही प्रयास है...........।























रविवार, 7 अक्तूबर 2012

लखनऊ : जैसा देखा मैनें.....भाग - 3


भाग - 3

रात 09:बज रहे हैं, गौतम त्रिवेदी (मेरे सहकर्मी) का ईमेल अभी-अभी मिला है, मेरा टिकिट है बैंगलुरू-लखनऊ-इन्दौर के, सीधे होटल के रिसेप्शन पर भागता हूँ और अपनी टिकिट के प्रिंटस लेकर कैसे तो भी रात्रि भोजन को पूरा करते हुए सोने चला जाता हूँ लेकिन जल्दी करते हुए भी 11:00 बज गए हैं, पापा से बात हो चुकी है, नीता (मेरी सबकुछ) से बात हो चुकी है वो अलबत्ता इस बात के लिए नाराज है कि अब मैं उसे अपने साथ किसी ऐसे आयोजन / कार्यक्रम में भी नही ले जा पा रहा हूँ। सुबह होटल का बिल सैटल करना है, सुबह 05:30 एयरपोर्ट पहुँचना है तो होट्ल से करीब 04:15 पर निकलना होगा बास ऐसी उल्टी गिनती ही चलती रही आँखों में कब नींद आई कुछ पता ही नही चला। रात अभी खुद नींद में मदहोश है, घड़ी में रात के ढाई बज रहे हैं मैं भी अपनी अलसाई आँखों से नींद भगाने का प्रयास कर निकल पड़ने की तैयारी करने में जुट गया हूँ। फिर वही रूटीन, बिल प्लीज, चेकआऊट, पैमेंट, दोबारा सेवा का मौका दीजियेगा वगैरह वगैरह....टॅक्सी आ चुकी है, बस निकल पड़ा थैंक्य़ू बैंगलुरू.......

26-अगस्त-2012 : एयरपोर्ट के बारे में सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि पहुँच चुका हूँ, इंडिगो की उड़ान है सुबह 06:35 पर लखनऊ से उड़ान भरेगी और 09:40 पर लखनऊ पहुँचेगी (शेष सभी कुछ जो होता है इस प्रोसेस में वो या तो गोपनीय होता है और सरकारी आदेश के अनुसार प्रतिबंधित होता है, जैसे एयरपोर्ट पर कोई तस्वीर खींचना, हवाई तस्वीर खींचना, धूम्रपान करना, मोबाइल से बात करना, इसलिए उस बारे में न तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ और न आप सुनें, भई सरकारी आदेश जो है......)। सुबह के 09:45 हो रही है मैं लखनऊ एयरपोर्ट की लाऊंज में आ चुका हूँ सीधे ही फोन लगाता हूँ रविन्द्र प्रभात जी को और इत्तला देता हूँ कि सर जी आपके शहर में हमारे कदम पड़ चुके हैं अब अगर शहर में कुछ हो तो सरकारी कायदे में हमारा नाम भी लिया जा सकता है लेकिन इस समय के पहले की हमारी कोई जिम्मेदारी नही। अमौसी एयरपोर्ट से प्रीपेड टॅक्सी पकड़ी है हज़रतगंज के लिए और फिर रास्ते में ही रविन्द्र जी का फोन आ जाता है कि होटल जैमिनी इंटरनेशनल देख सकते हैं ठहरने के लिए। होटल तक पहुँचने के बाद यह समझ आ गया कि गोमती का पानी सफेद क्यों नही रह गया चलो भाई यहाँ तो अपनी दाल नही गलेगी। इस बीच महफूज अली को फोन लगाया था जनाब कहीं बाहर गए हुए थे शायद अम्मी ने उठाया होगा और कहा कि जब महफूज आ जाएगें तो बता देगें(फिर तो लखनऊ छोड़ने के बाद भी इंतजार ही किया) और विनय प्रजापति को तो यूँ ही ढूंढ पाना मुश्किल फिर मै कैसे खोज लेता फोन नही लगा? फिर क्या दोबारा रविन्द्र जी को फुनियाया कि भाई साहब अब बताएँ कहाँ जाए और उन्होंने तुरंत ही कहा आप परेशान न हों विश्वविद्यालय के अतिथिगृह चले जाएँ और वहाँ अटेण्डेंट से श्री जाकिर अली "रजनीश" की बात करवा दें कुछ हो जाएगा हालांकि हमारी बुकिंग आगामी कल की है ( इस साफगोई ने दिल जीत लिया कि आदमी शहर में होते हुए भी गँवई भोलापन लिए हुए है)।

आखिरकार, लखनऊ विश्वविद्यालय का अतिथि निवास (गेस्ट हाऊस) पहुँच ही गया और कोई आधे घण्टे के इंतजार के बाद मुझे वहाँ एक कमरा मिल ही गया। कमरा बहुत ही अच्छा है, साफ, सजा हुआ, ए.सी., टी.व्ही., फ्रिज आदि आधुनिक सुविधाओं से लैस। अबतक लखनऊ की उमस भरी गर्मी से बैचेन हो गया था, तुरंत स्नान किया और फिर यहँ तक आते हुए रास्ते में पप्पू भैया(हमारे टॅक्सी ड्राईवर) ने एक पुल से गुजरते हुए बताया था कि यह पुल हनुमान सेतु कहलाता है यहाँ हनुमान जी का मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है लखनऊ में मंगल और शनिचर को बहुत भीड़ रहती है जाम लगा रहता है सड़कों पर। कुछ भी किसी भी शहर को जानने के लिए कोई गाईड नही कोई मैप नही बस कोई अच्छा और बातूनी ड्राईवर चाहिए फिर तो पूरा शहर परोस के रख देगा। मैं भी मंदिर हो आया कुछ देर वहाँ रुका भी बहुत श्रवणीय भजन संगीत के साथ, मन चाह रहा था कि दोपहर वहीं बिता दूँ। बहरहाल वहाँ से लौटने लगा तो पाँव परिवर्तन चौक तरफ उठ गए वहाँ घूमता रहा और फिर वहीं एक मिठाई की दुकान जहाँ मावा औटाया जा रहा था, ताजी और गर्म मिठाई खायी (ऐसा स्वाद एक मुद्दत के बाद मिला था, याद पड़ता है जब चंदिकन(एक देवी का मंदिर बक्सर के पास) गया था तब वहाँ ऐसी ही मावे की गर्म कुसलियाँ खायीं थी), इस दुकान पर हाथ से घुमा कर जमायी जा रही कुल्फियाँ भी बनते देखना बड़ा आश्चर्यमिश्रित सुखद लगा कि टेक्नालॉजी के बढ़ते हुए कदमों के बावजूद भी हम कैसे अपनी पुरातन तकनीकों को बचाए हुए हैं।

अब तक मैं पुनः गेस्ट हाउस आ पहुँचा हूँ और श्री रविन्द्र प्रभात जी भी, यहीं उनसे पहली दफा रूबरू मुलाकात हो रही है, सहज, सरल और मृदुल रविन्द्र जी से मिलना लखनऊ आने की सबसे बदई सौगात रही। फिर रविन्द्र जी मुझे नीचे खींच ले आए रूम न> 103 में जहाँ श्री अविनाश वाचस्पति, श्री पवन चंदन और डॉ. हरीश अरोड़ा अपना डेरा जमाए हुए थे। सब दिल खोल के मिले ऐसा लगा ही नही कि हम पहली बार मिल रहे हों। हालांकि मैं पहले भी श्री अविनाश जी मिल चुका हूँ दिल्ली में अपनी पुस्तक " शब्दों की तलाश में " के विमोचन पर लेकिन लखनऊ में उनसे मिलना बिल्कुल दिल से हुआ(शायद दिल्ली में कोई भी किसी दिल नही मिला सकता)। अब यहीं पर श्री रणधीर सिँह ’सुमन’ लोकसंघर्ष ब्लॉगवाले आ चुके हैं और श्री मनोज पाण्डेय भी(श्री मनोज से मेरी मुलाकात गेस्ट हाऊस की लॉबी में हो चुकी थी और बातें भी तब तक हम अंजान थे एक दूसरे से, ऐसा बहुत बार होता है कि हम किसी शख्स से घंटों बातें कर लेते हैं और फिर भी उसका नाम पता तक नही पूछते, हमारी सभ्यता का विकास इस कदर हो चुका है)।

शाम ढल चुकी है, अवध जिसकी शामों के बारे मेरा कुछ भी कहना कोताही ही होगा इसलिए कुछ नही कहूँगा लेकिन मेरी उस शाम में श्री संजय जायसवाल "संजय" व्यंग्यकार श्री अविनाश से मिलने आए थे लेकिन जब बैठे तो दो-ढाई घंटे बीत गए। अब तक खाने का समय हो गया था हम सब नीचे डाईनिंग रूम में आ चुके थे, गेस्ट हाऊस की मेस का बिल्कुल घरेलु खाना (करीब एक हफ्ते बाद नसीब हुआ था)। खाना खत्म होते होते श्री शैलेष भरतवासी (हिन्द-युग्म) अपने साथ श्री दिव्यप्रकाश दुबे के ले आए थे, दिव्य करीब दो सालों पहले इन्दौर में पदस्थ थे और मेरी एक कविता "वो काली सी लड़की" के मुरीद, हमारी मुलाकात इन्दौर में तो नही लखनऊ में ही तय थी तो यहीं मिले। सब अबतक मेरे कमरे रूम न. 12 में आ चुके थे। दिव्य के साथ दिल खोल के बतियाया और पापा की एक कहानी "एक दूसरी जानकी का जन्म" पर के डाक्यूमेन्ट्री बनाने के संबंध में लम्बी चर्चा हुई और रात ग्यारह बजे तक मुझ पर वही जिन्न सवार होने लगा जिसे नींद भी कहते हैं भाई...........नींद के इंतजार के साथ सुबह के ख्याल दिल में तैर रहे थे....कौन कौन आ रहा है???

                                          पढ़ते रहियेगा अभी सफर बाकी है........

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

लखनऊ : जैसा देखा मैनें.....(भाग– 2)


आपन चैति होत नही, हरि चैति तत्काल, बलि चाहा बैकुंठ को भेज दिया पाताल। को मैं एक महावाक्य की तरह ही लेता रहा हूँ, यह कहा जाता है कि हमारे संस्कारों की बेल को केवल स्त्रियाँ पोष रही है सदियों से नही तो वो कभी के विलुप्त हो गए होते जैसे इंसानियत, इमानदारी और सद्चरित्र कालांतर में विलुप्तप्राय होते गए और इन्सानों के मशीनी संस्करण के रूप में भीड़ बढ़ती गई। मेरी माँ, का बहुत गहरा विश्वास रहा है ईश्वर में और हम सभी भाई-बहनों में यह घूंटी के साथ पिया हुआ दौड़ रहा रहा है आज के दौर में इतना बदलाव जरूर आया है कि हम अब भी खूंटियाँ तलाशते हैं और हमारी पीढियाँ अपने वार्डरौब में हैंगर(भले खूंटियों की जरूरत उन्हें भी हो संस्कारों के टांगने के लिए, और खूंटियाँ शायद इसिलिए बची रह गई हों?) बहरहाल, लखनऊ जाने के प्रश्न को ईश्वर के हवाले कर मैं तो व्यस्त हो गया बैंगलुरू में।


23-अगस्त-2012, बैंगलुरू एयरपोर्ट से हॉटल लेमन-ट्री, अल्सूर झील(एम.जी.रोड़ क्रास) पहुँचने तक दोपहर तीन बज आयी थी, फिर चेक-इन की औपचारिकताएँ निबाहते हुए अपने कमरे में दाखिल होने के साथ कुछ देर आराम करने की चाह को रोक नही पाया, ऐसा हो जाता है उबाऊ सफर के बाद मुझे व्यक्तिगत तौर पर हमारी रेलगाड़ियों से यात्रा करना सुहाता है, समय या तो कभी राजनैतिक छी-छा लेदर करते गुजर जाता है तो कभी पड़ोसी के अख़बार में झाँकते हुए(यह ताक-झाँक मुझे कभी यात्राजन्य प्रतीत होती है) और भी अन्य कई साधन सुलभ होते हैं दिल बहलाने के लिए जिन खोजा तिन पाईयाँ.....की तर्ज पर। हवाई सफर में ऐसी कोई गुंजाईश नही होती यहाँ आदमी बस खुद में ही सिकुड़ा जाता है उसके फैलने की जगह भी तो नही होती है, अर्थ को शास्त्र के साथ समझ लेने से आदमी कभी-कभी अनर्थ कर बैठता है वैसा ही कुछ लगता है कि जहाँ हैड स्पेस, बूट स्पेस, आर्म स्पेस सभी कुछ स्पेसीफाई होता है और आदमी के लिए कुछ जगह नही बचती।

24-अगस्त-2012, सुबह से ही दिन सवार है सातवीं माले पर सूरज भी निकलते ही मेरे कमरे में आ धमका था गोया उसे भी मेरे साथ वर्चुअल बाहा में एक निर्णायक की भूमिका निभानी हो? बहरहाल मैं लेट हो चुका हूँ बाकी सभी अपने हिस्से का कॉम्पलीमेंट्री बेकफास्ट कर चुके हैं और मेरा अभी पाठ चल रहा है खैर किसी तरह मैं गाड़ी पकड़ लेता हूँ अपने गंतव्य बैंगलुरू इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के लिए। सुबह से कब शाम और कब रात ढल गयी कुछ पता ही नही चला। रात 09:00 बज रहे हैं लौट रहा हूँ होटल सुबह के लिए वेल्लोर निकलना,टॅक्सी ठहरानी है, बड़ी अजॊब सी स्थिती है कि जब संध्या की लाली ऊषाकाल का भ्रम रचती है और नींद आँखों का पता पूछकर उल्टे पाँव लौट जाती है।

25-अगस्त-2012 सुबह बिल्कुल जल्दी ही रोस्टोरेन्ट में पहुँच गया था ब्रेकफॉस्ट में विष्णुमोहनी( अब हम तो ठहरे पूरी/पूड़ी वाले अब आप इसे सोहारी कहें, पूड़ी कहें या पूरी क्या फर्क पड़ता है) और भाजी थी और पूरे दिन का सफर....बस फटाफट निपटाया और चल पड़े। हौसूर को पार करते ही प्राकृतिक नजारों से भरी हुई पहाड़ियाँ के बीच गुजरना(मैंने अपने फेसबुक पर भी चित्रमयी स्टेट्स अपडेट किया था) बड़ा ही सुखद लगा हरबार यही लगता रहा कि बस कि यहीं कहीं रह जाऊं। वेल्लोर पहुँचने के साथ एक झलक देखने को मिला कि किसी राजनैतिक पार्टी ने चौराहे पर मजमा लगाया हुआ है और कुछ जूनियर आर्टिस्ट बड़े ही भद्दे तरीके से मेकअप किए हुए अपने सुप्रीमो के डायलग्स बोल रहे हैं या उनकी फिल्मों के गीतों पर ठुमकए लगा रहे हैं (मैं अचंभित था, इस देश में अभी भी ऐसा सब कुछ संभव है लोगों का हुजूम केवल एक भीड़ है और उनको भूख भी लगती है) और लोगों की भीड़ यही संकेत दे रही है कि उन्हें बड़ा अच्छा लग रहा है। वेल्लोर इंस्टीट्यूट के खूबसूरत और करीने से व्यवस्थित कैम्पस में पहुँचने पर वो आनंद की अनुभूति हुई और मन श्रृद्धा से भर गया इसको बनाने वालों और इसे मैंनेटेन करने वालों के प्रति(मैंने अपने फेसबुक में यह स्टेट्स अपडेट भी दिया था)। अब तक ब्लैकबेरी किसी बैरी की तरह मेरी इन्दौर वापसी की एयर टिकिट ला चुका था। बड़े खिन्न मन से लौट रहा हुँ बैंगलुरू के लिए और इस उदासी की वज़ह से मैं अब उन सारे सुन्दर / सुखद नज़ारों से नज़रे नही मिला रहा हूँ।


अचानक एक ख्याल आता है और अपने बॉस को एक ईमेल भेज देता हूँ कि क्या अपनी इन्दौर की वापसी को लखनऊ के बारास्ता कर सकता हूँ? और साथ में तस्लीम-परिकल्पना का ईमेल निंमत्रण अटैच कर देता हूँ, कहा जाता है न...तिरिया चरित्रम, पुरूष्स्य भाग्यम दैव ना जानामि कुतौ मनुष्यः, मन में अनगिनत विचार उमड़ रहे थे और मुझे ...........हरि चैति तत्काल में भरोसा रह रहके याद आ रहा था और ब्लैकबेरी की खामोशी कहीं मेरे विश्वास को कमजोर कर रही थी। मेरे हौसूर पहुँचते पहुँचते शाम के 07:00 बज रहे थे, अचानक एक ईमेल आने का संकेत मिला मैंने धड़कते दिल से खोला तो सहसा चैंक पड़ा बॉस ने ईमेल मे ओ.के. लिखा था। फिर तुरंत एयर टिकिट की जुगाड़ में लग गया ताकि होटल पहुँचने तक लखनऊ निकलने का इंतजाम कर सकूँ। गौतम(मेरे सहकर्मी) टिकिट के लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं मेरा वार्तालाप जारी है और मैंने भी एक साथ कै च्वाइस दे दी हैं कि २६ अगस्त की सुबह से लगाकर रात तक क्भी भी लखनऊ पहुँचा दो। इस बीच रविन्द्र प्रभात जी से बात कर चुका हूँ, रश्मिप्रभा जी से तबियत के हाल ले चुका हूँ ऐसा लग रहा है कि बैंगलुरू में होते हुए भी मन लखनऊ पहुँच चुका है.......लेकिन अभी टिकिट नही आई है.........

पढ़ते रहियेगा अभी सफर बाकी है........

रविवार, 16 सितंबर 2012

लखनऊ : जैसा देखा मैनें.....(भाग : 1)


यूँ तो किसी भी शहर में कुछ और अलग नही होता है...झूलती इमारतों, चौड़ी सड़कों, बड़े चौराहों और भागती कारों और बैचेन लोगों और बेतरतीब गंदगी के ढेरों के अलावा लगभग सभी की एक जैसी कहानी, वैसे भी हम जिसे गाँव कहते हैं उसमें ये सब तो नही होता है। तो लखनऊ में भी कुछ ऐसा ही होगा लेकिन अपना देस होने के कारण बड़ा करीब सा लग रहा था, मेरे बचपन का एक खासा हिस्सा गुजर गया है उन्नाव, कानपुर, लखनऊ और रायबरेली की किस्सागोई में कभी बुआ, कभी नाना, कभी दादा(मेरे बड़े ताऊ जी) तो कभी दद्दू(मेरे छोटे ताऊ जी) और इन सबसे मिलने आने वाले वो लोग जिनके हिस्से का शहर अभी पैदा ही नही हुआ था शहर में लेकिन सपनों में बसा हुआ था। ये सारे लोग अपनी जिंदगी में से कितना हिस्सा वहाँ देहात में छोड़कर आये थे और कितना यहाँ ले आए शायद इस प्रश्न का उत्तर मैं तो नही खोज पाऊंगा इस जन्म में।

इन्दौर (म.प्र.) का वो शहर जो व्यापारिक राजधानी कहा जाता है, वहाँ के परदेशीपुरा (वो क्षैत्र जहाँ कभी उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले प्रवासी पहले बसे थे) 1920~40 के उन दिनों कपड़ा मीलें अपने शबाब पर थी और ऐसा लगता था जैसे इन्दौर की कपड़ा मीलें शायद इन्हीं प्रवासियों के लिए ही खुली हों। बहरहाल इस बस्ती जिसमें फगुआ ऐसी तान छोड़ते थे कि कभी अकेले में भी याद आ जाए तो मन भीग जाता था रंग से, सावन डोलता था पेड़ों पर, गुड़िया लूटी जाती थी, बिरह दंगल होते थे, तीतर की लड़ाईयाँ, कजरी तीज, भुजरिया कुल मिलाकर यह कि अपना देस, अपने त्यौहार, अपनी परंपराएँ और अपने लोग सब कुछ वैसा ही था जैसा अपने देस में था। ऐसे ही एक परिवार का हिस्सा होते हुए मैंने न जाने कितनी बार उत्तर प्रदेश की यात्रा करता रहा इन्दौर में ही रहते हुए। मेरी भौजी जब भी देस से लौटती थी तो उनकी जुबाँ पर वहीं के किस्से हुआ करते थे कुछ लखनऊ वाली मौसी के, शिवगढ़ वाले मामा के और कभी लाल की दुल्हिन के जैसे वो सब मेरी जिंदगी का एक हिस्सा बन चुका थे इन किस्सों के सहारे लेकिन इनमें से मैं किसीसे भी नही मिला था न ही पहचानता था उन्हें।

छियालीस की इस उम्र तक आते, अपने देश के बहुत व्यापारिक हिस्से को देख चुका था (आखिर नौकरी जो न कराए/दिखाए वो कम) और हिन्दुस्तान से बाहर जापान, हांगकाँग, चीन और हिन्दी, अंग्रेजी, के अलावा मराठी बोलने समझने लगा हूँ और गौरतलब है कि जापानी भी इस हद तक बोल/समझ सकता हूँ अपने प्रश्न पूछ सकूँ और उनके उत्तर समझ सकूँ। लेकिन अपने गाँव, देस को न देख पाने की कसक जरूर सालती थी। ऐसा लगता था कि जैसे अभी बहुत कुछ छूटा हुआ अपना देस ही नही देखा, पुरखों की ज़मीन पर कदम नही रखा और आसमान में उड़ने की बातें करता हूँ। हाँ एक बात जरूर सीख चुका था कि उन्नाव, कानपुर, रायबरेली, कन्नौज, लखनऊ, इलाहाबाद आदि शहरों ने हिन्दी साहित्य को अपने पूतों से समृद्ध किया है (हमारे दिनों में तो हिन्दी की परीक्षा में कवि, लेखक की जीवनी याद करनी ही होती थी, खैर अब न तो स्कूल में हिन्दी की बात होती है और न हिन्दी में)।

अपने पिता (श्री रामप्रकाश तिवारी "निर्मोही") से मेरा विरोध न जाने कैसे और क्यों रहा यह तो मैं भी नही जान पाया हूँ, उन्होंने कहानियाँ लिखी और अपना नाम किया (यह मेरे लिए गर्व का विषय है कि जिस आदमी ने रोटी के लिए संघर्ष अपने बचपन से शुरू किया हो और खुदको एक कहानीकार के रूप में स्थापित किया हो)। मैं अपनी बात पर आता हूँ चूंकि वो कहानी लिखते थे तो मैं कविता लिखूंगा और शायद यही एक वज़ह(प्रेरणा) रही हो कि मैं लिखने लगा। फिर अपने कॅरियर के लिए जैसे सब कूछ भूल गया था लेकिन फिर वो दबी हुई चिंगारी भड़कने लगी 1986 में नौकरी तक आते आते। मैं अब तक तो केवल यही महसूस करता कि मै केवल अपने लिए लिख रहा हूँ तो क्यों किसीको छापने के लिए भेजूं और छपने की प्रतीक्षा इसलिए डायरियाँ भरता रहा। 2008 में जैसे मुझे पंख उग आए हों और यह मेरा ब्लॉगिंग से पहला सरोकार था (इस हेतु मैं श्री रवि रतलामी जी की शुक्रगुजार हूँ)।

अपनी किताब "शब्दों की तलाश में" के बाद रश्मिप्रभा जी के संकलन "खामोश, खामोशी और हम" का 2012 में प्रकाशित होना और फिर "गुंजन सप्तक" के संकलन में मेरी कविताओं को लिया जाना बड़ा सुखद था। लेकिन मन में अपने वर्चुअल दोस्तों से रूह-ब-रूह मिलना एक ख्वाब सा ही था, लेकिन तभी परिकल्पना-तस्लीम की ओर से अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगिंग सम्मेलन में भाग लेने का आमंत्रण मिला। अपने कैलेण्डर पर नज़र डालता हूँ तो यह लगता है कि नही पहुँच पाऊंगा 23 अगस्त 2012 को इन्दौर से बैंगलुरू के लिए निकलना है, 24 को वर्चुआल बाहा के लिए बैंगलुरू इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी में खटना है, फिर 25 की अलसुबह वेल्लोर इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, वेल्लोर का थकाऊ सफर कर देर रात बैंगलुरू लौटना है फिर 26 की देर रात 03 बजे इन्दौर के लिए पुनः लौटने के लिए निकलना है। बैंगलुरू में नया एयरपोर्ट इतना दूर क्यों है? फिर 27 की सुबह इन्दौर से लखनऊ के लिए निकलना न बाबा ना अब तक तो मन बना चुका था कि रविन्द्र प्रभात जी से क्षमा माँग लूंगा......

पढते रहियेगा बहुत कुछ लिखा जाना शेष है.............
 

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

काव्य संग्रह बदल मीच घडविणार( परिवर्तन मैं ही गढूंगा) का विमोचन

किताबों में अजीब सी कशिश होती है मेरा उनके प्रति आकर्षण कभी कम नही होता है। इस ब्लॉग "किताबों के बारास्ता" के माध्यम से मैं जो पढ़ रहा हूँ उन किताबों का अनुभव आप सब से बाँटना चाहता हूँ।

इसकी पहली पोस्ट की शुरूआत मैं कर रहा हूँ श्री नरहरि प्रभाकरराव वाघ के पहिले मराठी काव्य संग्रह "बदल मीच घडविणार" ( परिवर्तन मैं ही गढूंगा) से। जिसे प्रकाशित किया है पुणे के श्री प्रवीण मूथा (सान्प्रा कॉम्प्यू फार्मस प्रा. लिमिटेड़) ने कुल पृष्ठ संख्या 172, संग्रहित कवितायें 110 और 75 चारोळ्या (चार पंक्तियों की कवितायें) हैं, स्वागत मूल्य है रू. 175/-

मुझे आप  सबसे यह बाँटते हुये बड़ी खुशी होती है कि कहीं अप्रैल 2008 में मेरी श्री वाघ से मुलाकात एक बिजनेस विजिट में हुई थी प्रसंग था काईनेटिक मोटर कम्पनी लिमिटेड़ के ड्यू-डिलिजेंस को और श्री वाघ एक असेसर की हैसियत से वहाँ थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि "ख़ग जाने ख़ग ही की भाषा" ......ठीक उसी प्रकार मुझे यह समझते देर नही लगी कि साहित्य-प्रेम हमारे बीच सेतु है। हालांकि जिस विनम्रता से श्री वाघ अपने साहित्यसेवी होने का इंकार करते उतना ही मेरा विश्वास मज़बूत होता था। पिछले तीन सालों में न जाने कितने ही अवसर आये जहाँ ऑफिस हमारे ऊपर हावी था लेकिन इतने विरोधों/अंतर्विरोधों के बाद भी कविता ही थी जिसने आपसी/निज प्रेम को बनाये रखने में मदद की।
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परिचय : जन्म 17 दिसम्बर 1960 को सावली(सदोबा) तहसील आर्णी, जिला यवतमाल (महाराष्ट्र) के एक किसान परिवार में जिसके पास अपनी संपत्तियों में थोड़ी जीवन-आपूर्ती योग्य खेती और चार बच्चों(तीन बड़ी बहनों के अलावा मैं) थे। 1974 में गाँव के ही स्कूल में सातवीं तक शिक्षा पाने के पश्चात यवतमाल,अमरावती से होते हुये वारंगल(आंध्र-प्रदेश) से एम.टेक.(मैकेनिकल) तक शिक्षा प्राप्त की।

करीब-करीब 25 वर्षों के सेवाकाल में एक अभियंता(इंजिनियर) से लगाकर वरिष्ठ प्रबंधक की हैसियत से वालचंदनगर इंडस्ट्रीज लिमिटेड़, बजाज ऑटो लिमिटेड़(आकुर्डी) और अंततः महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा में विभिन्न पदों पर कार्य। इसके अतिरिक्त करीब सात माह का शिक्षण का अनुभव शासकीय तंत्र निकेतन(पुणे) और विश्वकर्मा इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी(पुणे) में अध्यापन कार्य।
विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से जनजागृति, पर्यावरण संरक्षण, रक्तदान शिविर, व्याख्यान, ट्रैफिक सुरक्षा अभियानों में सक्रिय भागीदारी।


वर्तमान में श्री वाघ ने अपने आपको रोज की आपाधापी से मुक्त कर लिया है और अपने माता-पिता के नाम से एक चेरिटेबल ट्रस्ट को मूर्त रूप देने में जुटे हुये है। इस ट्रस्ट का उद्देश्य हैं कि गरीब मेधावी बच्चों के लिये एक विद्यालय का निर्माण जहाँ चरित्र निर्माण के साथ व्यवहारिक शिक्षा देते हुये उन्हें प्रतियोगी समाज में आत्मनिर्भर बनने का अवसर प्रदान करना।

उनके इस सदकार्य में यदि आपका सहयोग मिला तो हमसब समाज के नवनिर्माण में सहभागी होंगे, इसी आशा के साथ।


सम्पर्क सूत्र :
श्री नरहरि प्रभाकरराव वाघ
संस्थापक अध्यक्ष
लक्ष्मीप्रभाकरसुत चॅरीटेबल फाऊंडेशन
ए-2/3, शुभम पार्क, श्री स्वामी समर्थ नगर
सेक्टर 26, निगड़ी, प्राधिकरण
पुणे (महाराष्ट्र) 411044

मोबाईल : 094235-06367
ई-मेल : npwagh@gmail.com
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प्रस्तुत काव्य संग्रह बदल मीच घडविणार का विमोचन चिंचवड़(पुणे) के प्रो. रामकृष्ण मोरे प्रेक्षागृह में 22-दिसम्बर-2010 को संपन्न हुआ। मुझ अकिंचन को भी श्री वाघ से स्नेहभरा आमत्रंण मिला था किंतु ऑफिस ऐसे मौको पर एक मज़बूरी की तरह सदा ही साहित्यिक आयोजनों से दूर रखता आया है सो नही पहुँच पाया था। मैंने अपनी भावनायें एक भाव भरी पाती के माध्यम से उन तक पहुँचायी थी :-

सुकवि श्री नरहरि वाघ को समर्पित भावभरी पाती

उस,
पहली मुलाकात में
फिर न जाने कितने ही फोनकॉलों से
मैं
,

धीरे-धीरे जानने लगा था कि,
तुम

कहीं न कहीं उस किस्म के इन्सान हो
जो आजकल देखने को नही मिलती
अपनी बात,

को सीधे से कह लेना
किसी भी दबाव के आगे बिना झुके
बड़ी हिम्मत का काम होता है

मुझे,
यह सीखने को मिला
तुम्हारे समीप रहकर
आज,

तुम्हारे विचार
चिंतन से आगे जाकर
स्वांतसुखाय की निजता से मुक्त हो
जब पढ़े जायेंगे
बात दिल तक पहुँचेगी जरूर
सभी तक
उन तक भी जो बेखबर
तुम्हारे
,

तुम(कवि वाघ) होने से

मैं,
नही पहुँच पाऊंगा
रामकृष्ण मोरे प्रेक्षागृह
लेकिन
,

यह भावभरी पाती
तुम्हें समर्पित साक्षी बन सकें
उस अप्रतिम क्षण की
जब आदमी इन्सान बनता है
और पूजा जाता है
अपने इन्सान होने के लिये
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सादर,

मुकेश कुमार तिवारी



मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक
: 20-दिसम्बर-2010 / सुबह : 06:15

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चूंकि मैं हिन्दी भाषी हूँ और मराठी भाषा को केवल बोलचाल हेतु बोल-समझ-पढ़ सकता हूँ अतः इस संग्रह की कविताओं में निहित अर्थ तक पहुँचने के लिये मैं अपने मित्र श्री सदानन्द पिम्पळीकर की मदद ले रहा हूँ। अगली पोस्ट में आप तक कविताओं को लेकर पहुँचूंगा।
अभी इतना ही